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क्या है ब्रेनवॉशिंग? जो लोगों को गुमराह करने की वजह कही जाती है 

क्या वाकई में किसी का ब्रेनवॉश हो सकता है कि वो जैसा नहीं है, वैसा बन जाए?

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आपने 'ब्रेनवॉश' के बारे में जरूर सुना होगा. खासकर खबरों में कि किस तरह आतंकी संगठन सोशल मीडिया, वीडियोज और बुक्स के जरिए युवा लोगों का ब्रेनवॉश कर उन्हें आतंकी गतिविधियों में शामिल करने की कोशिश करते हैं.

देश की खुफिया एजेंसियों ने कई बार खुलासा किया है कि लोगों के जेहन में भड़काऊ बातें डालकर सोशल मीडिया के जरिए उनका ब्रेनवॉश करने की साजिश रची जाती है.

लेकिन आखिर किसी का ब्रेनवॉश करने का मतलब क्या होता है? क्या वाकई में किसी का ब्रेनवॉश हो सकता है कि वो जैसा नहीं है, वैसा बन जाए? क्या इंसान के दिमाग, उसकी सोच को पूरी तरह से बदला जा सकता है?

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ब्रेनवॉशिंग है क्या?

ब्रेनवॉशिंग किसी व्यक्ति की (सहमति या इच्छा के बगैर) उसकी सोच और विश्वास को बदलने की कोशिश है. साइकोलॉजी में ये सामाजिक प्रभाव (social influence) के दायरे में आता है और सामाजिक प्रभाव हर पल पड़ता है.

फोर्टिस हेल्थकेयर में डिपार्टमेंट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बीहैव्यरल साइंस के डायरेक्टर डॉ समीर पारिख बताते हैं:

भले ही हम सभी पर एक-दूसरे का स्पष्ट या अस्पष्ट तौर पर सहज सामाजिक प्रभाव पड़ता है. ब्रेनवॉशिंग एक ऐसी घटना है, जिसमें एक खास मकसद से किसी के विचार, भाव, विश्वास या बर्ताव को बदलने की या उस पर प्रभाव डालने की कोशिश की जाती है.

किसी की सोच-समझ में बदलाव

सोशल साइकोलॉजी के सिद्धांतों के मुताबिक ब्रेनवॉशिंग सामाजिक प्रभाव (Social Influence) के कुछ कॉमन तरीकों का मिला-जुला रूप है.

जैसे सामाजिक प्रभाव का एक तरीका है, Compliance, जिसमें किसी के व्यवहार को बदलने के लिए उसके अपने विचारों या विश्वास पर की कोई चिंता नहीं की जाती. इसमें "बस ये काम कर दो" का तरीका अपनाया जाता है.

वहीं Persuasion में किसी के दृष्टिकोण और विश्वास प्रणाली को बदलने की कोशिश की जाती है. जैसे, "ये काम करो क्योंकि इससे तुम्हारा फायदा होगा."

फिर आता है, शिक्षित करने का तरीका, जिसे प्रोपेगेंडा भी कहते हैं. इसमें किसी के विश्वास को पूरी तरह से बदलने की कोशिश की जाती है, यहां तक कि तब भी जब जो कुछ भी सिखाया जा रहा है, उस पर टारगेट विश्वास नहीं करता. जैसे, "ये काम करो क्योंकि तुम जानते हो कि यही सही है."

इसी तरीके को जब अगले लेवल पर लेकर जाया जाता है, इसे ही कभी-कभी ब्रेनवॉशिंग कहते हैं. इसमें सामाजिक प्रभाव के ऊपर बताए गए सभी तरीके शामिल होते हैं. ब्रेनवाशिंग में किसी की सोच यहां तक कि व्यवहार दोनों को ही बदलने की दिशा में काम किया जाता है. वो शख्स खुद उस सोच या काम पर यकीन करने की कोशिश करने लगता है.
डॉ समीर पारिख, डायरेक्टर, डिपार्टमेंट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड बीहैव्यरल साइंस, फोर्टिस हेल्थकेयर

क्या ब्रेनवॉशिंग संभव है?

डॉ पारिख के मुताबिक सोशल इंफ्लूएंस की ये टेक्निक असल में कई टेक्निकों से मिलकर बनी है, जो किसी के सोचने की प्रक्रिया में बदलाव लाती है, अक्सर ये उस शख्स की सचेत सहमित या यहां तक कि उसकी इच्छा के विरुद्ध भी हो सकती है. ऐसे में उस शख्स को ये भरोसा होने लगता है कि वो काम या सोचने की प्रक्रिया उनके फायदे या विकास के लिए है.

इसीलिए, ब्रेनवॉशिंग सामाजिक प्रभाव का बेहद गंभीर और कठोर रूप है. 
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आतंकवाद और ब्रेनवॉशिंग का मनोविज्ञान

हाल ही में खबर आई और कई बार ये बात सामने आई है कि आतंकी संगठन ISIS में भर्ती के लिए उस यूनिट के लोग सोशल साइट्स पर लोगों से दोस्ती करके ये देखते थे कि कौन-कौन से लोगों में दहशतगर्दों को लेकर सहानुभूति है. इसके बाद उनसे नजदीकी बढ़ाई जाती और फिर उन्हें आतंकियों के प्रति सहानुभूति पैदा करने वाले वीडियो और ऑडियो भेजे जाते.

क्या किसी खास मकसद के लिए लिखी गई किताबों को पढ़कर, वीडियोज देखकर या ऑडियो के जरिए किसी की सोच को बदला जा सकता है?

ओमेर्टा मूवी में आतंकवादी उमर सईद शेख का किरदार निभा चुके राज कुमार राव ने कई इंटरव्यू में बताया है कि उस किरदार को समझने के लिए राव ने कई संगठनों के बारे में किताबें पढ़ना शुरू किया, गुस्से और नफरत से भरी तमाम स्पीच सुनीं, दर्दनाक तस्वीरें देखना शुरू किया. सिर्फ इसलिए ताकि उनके अंदर भी किरदार निभाने के लिए वो गुस्सा और नफरत आ सके.

उस किरदार के लिए वो सभी को अपने दुश्मन के तौर पर देखने लगें, ये सोचने लगें कि वो अपने भाइयों और बहनों का बदला लेंगे. इसका असर ऑफ कैमरा भी उन्हें महसूस होने लगा, जैसे जब उन्होंने पेरिस अटैक की खबर सुनी, उस दौरान ओमेर्टा की शूटिंग चल ही रही थी और वो उस किरदार में थे, सबसे पहले उनके दिमाग में ख्याल आया 'बहुत अच्छे', लेकिन हां, जाहिर है कि तुरंत उन्हें ये एहसास हुआ कि नहीं, ये गलत है.

अब वो मानते हैं कि ऐसे लोगों का बेहद मजबूती से ब्रेनवॉश किया जाता है.

सोचिए, अगर किसी आतंकी का किरदार निभाने के लिए अपनाए गए तरीकों से दिमाग इस कदर प्रभावित हो सकता है, तो जिनके साथ दिन-रात यही होता हो. उनका दिमाग किस हद तक बदला जा सकता है.

पूर्व थल सेना प्रमुख ब्रिकम सिंह भी अपने एक लेख में लिखते हैं, कट्टरपंथ मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का वह पहला कदम है, जो भोले नौजवानों को आंतक की राह पर बढ़ाता है. कोई इंसान तब कट्टर बनता है, जब उसकी सोच को मनोवैज्ञानिक रूप से गलत दिशा में मोड़ दिया जाता है. यहां तक कि पढ़े-लिखे और नौकरीपेशा नौजवान भी आतंक की मनोवैज्ञानिक मशीनरी के शिकार बने हैं.

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ब्रेनवॉशिंग के लिए अनुकूल माहौल

गार्जियन की एक खबर के मुताबिक हाल की एक इंटरनेशनल स्टडी में ये बात सामने आई है कि सामाजिक बहिष्कार (अलगाव) भी लोगों के आतंकवादी बनने की एक बड़ी वजह है. कट्टरपंथी आबादी पर न्यूरोइमेजिंग अध्ययन से पता चला कि सामाजिक बहिष्कार के बाद एक्सट्रीम प्रो-ग्रुप बर्ताव तेज होता है.

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के रिसर्चर्स के साथ इस इंटरनेशनल टीम ने ये देखने के लिए कि कट्टरपंथी लोगों का दिमाग सामाजिक रूप से हाशिए पर होने का जवाब कैसे देता है, न्यूरोइमेजिंग टेक्नीक का इस्तेमाल किया.

उनके ब्रेन स्कैन से पता चला कि समाज से बाहर किए जाने का न्यूरोलॉजिकल प्रभाव ये था कि जब स्कूलों में इस्लामिक शिक्षण शुरू करना या मस्जिदों का अप्रतिबंधित निर्माण जैसे मुद्दे उठाए गए, तो वे इतने महत्वपूर्ण हो गए (जबकि पहले ऐसा नहीं था) कि उनके लिए लड़ना भी जरूरी लगने लगा.

ब्रेनवॉशिंग के एक के बाद एक सभी स्टेप्स के लिए अलगाव के माहौल की ही जरूरत होती है, इसका मतलब है कि सभी सामान्य सामाजिक संदर्भ मौजूद न हों.

ब्रेनवॉशिंग में ब्रेनवॉश करने वाले (एजेंट) का टारगेट (जिसका ब्रेनवॉश किया जा रहा है) पर पूरा नियंत्रण होना जरूरी होता है.

कितना पुख्ता होता है ब्रेनवॉशिंग का प्रभाव?

कई विशेषज्ञ मानते हैं कि ब्रेनवॉशिंग का प्रभाव शॉर्ट टर्म के लिए होता है.

ब्रेनवॉश किए गए शख्स की पुरानी पहचान पूरी तरह से खत्म नहीं हुई रहती है, बल्कि छिपी रहती है.

जब एक बार टारगेट पर नई पहचान को थोपना बंद कर दिया जाता है, उसकी अपनी पुरानी सोच, उसका विश्वास वापस आना शुरू हो जाता है.

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